स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती 2025: जीवन परिचय और कोट्स फोटो

हिंदू कैलेंडर के अनुसार स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म फागुन मास में कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को हुआ था। इस साल उनकी 202वीं जयंती 23 फरवरी 2025 को है। आइए उनके अनमोल विचारों और जीवनी के बारे में विस्तार से जानते है।

स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती कब मनाई जाती है?

भारत के महान समाज सुधारक, देशभक्त, शुभचिंतक और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था। हालांकि हर साल उनकी जयंती हिंदू कैलेंडर के अनुसार फागुन महीने की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को मनाई जाती है, इस साल 2025 में रविवार, 23 फरवरी को स्वामी दयानंद सरस्वती जी की 202वीं जयंती मनाई जा रही है।

स्वामी जी ने वर्ष 1875 में आर्य समाज की स्थापना की और सन् 1857 की क्रांति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके विचारों से महात्मा गांधी जी जैसे कई वीर पुरुष प्रभावित थे। यहाँ उनकी जन्म जयंती के मौके पर दयानंद सरस्वती जी की बायोग्राफी (जीवनी) तथा कुछ सुविचार (Quotes) व शुभकामना संदेश (Wishes फोटो) साझा की गई है।

स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं
स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं

 

महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती कब है? (2024, 2025 और 2026 में)

12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में जन्में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्मदिन (Birthday) हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से मनाया जाता है, इसलिए अग्रेजी कैलेंडर में यह दिन हर साल अलग-अलग तारीख को पड़ता है। इस वर्ष 2025 में उनकी जयंती रविवार, 23 फरवरी को मनाई जाएगी।

जहाँ साल 2023 में 15 फरवरी को स्वामी जी की 200वीं जयंती थी, तो वहीं पिछली साल 2024 में उनका जन्मदिन मंगलवार, 05 मार्च मनाया गया था। हालांकि अगली साल 2026 में स्वामी जी की जयंती 12 फरवरी को मनाई जाएगी।



महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती पर उनके सामाजिक और धार्मिक विचार

दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिए, और आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा।


महर्षि दयानंद सरस्वती जी के कोट्स
महर्षि दयानंद सरस्वती जी के कोट्स

 

अज्ञानी होना गलत नहीं है, अज्ञानी बने रहना गलत है।


स्वामी दयानंद सरस्वती के सुविचार
स्वामी दयानंद सरस्वती के सुविचार

 

“काम करने से पहले सोचना… बुद्धिमानी,
काम करते हुए सोचना… सतर्कता,
और काम करने के बाद सोचना…
मूर्खता है”


Arya Samaj Founder Anmol Suvichar Pics
Arya Samaj Founder Anmol Suvichar Pics


 


आत्मा अपने स्वरुप में एक है,
लेकिन उसके आस्तित्व अनेक है।


दयानंद सरस्वती जी के अनमोल विचार
दयानंद सरस्वती जी के अनमोल विचार

 

“ये शरीर नश्वर है, हमे इस शरीर के जरीए सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है”


Maharishi Dayanand Saraswati Jayanti Video Status:

 


दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय (बायोग्राफी)

स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा, गुजरात (मोरबी) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूल शंकर तिवारी था। स्वामी जी के पिता ‘अंबा शंकर तिवारी‘ एक नौकरी पेशा व्यक्ति थे, तथा उनकी माता जी का नाम अमृत बाई था।


नाममहर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती
असली नाममूलशंकर तिवारी
जन्म12 फरवरी 1824 टंकारा, गुजरात
माता-पिताअमृत बाई – अंबाशंकर तिवारी
धर्मसनातन धर्म (हिन्दू)
गुरु/शिक्षकविरजानन्द
कार्य-क्षेत्रस्वतंत्रता सेनानी, समाज-सुधारक, धर्मगुरु
उपलब्धिआर्य समाज के संस्थापक, समाज सुधारक, 1857 की क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान
मृत्यु30 अक्टूबर 1883 अजमेर, राजस्थान

 

महाशिवरात्रि पर घटी इस घटना से बदला स्वामी जी का जीवन:

स्वामी दयानंद जी शुरू से ही अपने पिता का कहना मानते थे, क्योंकि वह एक ब्राह्मण थे इसीलिए उनके परिवार में हमेशा धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे। एक बार की बात है स्वामी जी के पिताजी ने उनसे महाशिवरात्रि का उपवास रख विधि विधान के साथ रात्रि जागरण व्रत करने को कहा।

पिताजी के कहे अनुसार मूल शंकर (स्वामी जी) ने उपवास रखा और उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मंदिर में ठहरा, जहां रात्रि में उनके परिवार के सभी सदस्य सो गए, परंतु वह जागते रहे और यह प्रतीक्षा करते रहे कि कब भगवान आएंगे और इस प्रसाद को ग्रहण करेंगे।

काफी देर तक इंतजार के बाद अर्ध रात्रि में उन्होंने देखा कि भगवान पर चढ़ाया प्रसाद वहां रहने वाले कुछ चूहों की टोली खा रही थी। यह देख वह काफी आश्चर्यचकित हुए और उनके मन में यह विचार आया कि जब भगवान खुद पर चढ़ाए गए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकते तो वे मानवता की रक्षा क्या करेंगे? इस घटना ने उन्हें काफी प्रभावित किया।

 

सन्यास और दयानंद सरस्वती बनना

स्वामी जी के बचपन का जीवन काफी अच्छे से बिता परंतु अचानक हुई उनकी बहन की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया, और उनके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया। जिसके बाद, वे काशी जाकर पढना चाहते थे लेकिन उनके पिता ने उनका विवाह कराना चाहते थे इसलिए 21 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना घर बार छोड़ दिया।

कई वर्षों तक भटकने के बाद मूलशंकर तिवारी, स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से मिले, जिन्होंने उन्हें सन्यासी की दीक्षा दी और 24 वर्ष की आयु में वे एक सन्यासी बन गए। उन्हें दयानंद सरस्वती नाम भी पूर्णानंद जी से ही मिला।

 

गुरू और गुरू दक्षिणा

ज्ञान और गुरू की तलाश में 13-14 सालों तक भटकने के बाद दयानन्द सरस्वती जी स्वामी विरजानंद जी से मिले, वे अंधे थे लेकिन आत्मज्ञान का जीवित रूप थे। इसलिए स्वामी जी ने उन्हें अपना गुरु मानकर मथुरा में ही वैदिक एवं योग शास्त्रों के साथ-साथ ज्ञान की प्राप्ति भी की।

जब उन्होंने अपने गुरु स्वामी विरजानंद जी से गुरु दक्षिणा के विषय में पूछा तो उनके गुरूजी ने गुरु दक्षिणा के रूप में उनसे एक प्रण लेने को कहा, और बोले जब तक तुम जीवित रहेंगे तब तक वैदिक शास्त्रों का महत्व लोगों तक पहुंचाते रहोगे और इसे ही अपनी गुरु दक्षिणा बताया। स्वामी जी ने भी अपनी गुरु दक्षिणा के रूप में लिए गए संकल्प को बखूबी निभाया और ‘वेदों की ओर चलो‘ का नारा दिया।

उन्हें उनके गुरु द्वारा वेदों शास्त्रों की शिक्षा मिली थी, और उन्होंने संस्कृत, वेदों शास्त्रों एवं अन्य धार्मिक पुस्तकों का भी अध्ययन किया था।

 

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

स्वामी जी ने सन्यास लेने के बाद से ही अंग्रेजो के खिलाफ बोलना शुरु कर दिया, देश भ्रमण करने पर उन्हें यह पता चला कि लोगों के अंदर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ काफी ज्यादा आक्रोश है। इसलिए उन्होंने भारत के सभी वर्ग के लोगों को आजादी के लिए जोड़ना शुरु किया। उन्होंने इसकी शुरुआत साधु-संतों को जोड़कर की जिससे साधारण लोग प्रेरणा ले सकें।


1857 की क्रांति में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा और उन्होंने ‘स्वराज का नारा‘ दिया, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया।

 

आर्य समाज की स्थापना कब और कहाँ हुई थी?

महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने धर्म सुधार तथा समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 10 अप्रैल 1875 को मुंबई के गिरगांव में आर्य समाज की स्थापना की। जिसका आदर्श वाक्य ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‘ है और इसका हिंदी अर्थ ‘विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलो‘ है।

आर्यसमाज के सभी सिद्धांत और नियम लोगों के कल्याण के लिए बनाए गए है। आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य संसार की भलाई करना, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति पर ध्यान देना है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी को सभी वेदों का सटीक ज्ञान था, साथ ही वह अपने जीवन को पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य, सन्यास और कर्म सिद्धांत के चार स्तंभों पर खड़ा मानते थे।

 

स्वामी दयानंद जी की मृत्यु कब और कैसे हुई?

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को कुछ अंग्रेजी हुकूमत के षडयंत्रकारियों ने जहर देकर मारने की कोशिश की, परंतु योग पारंगत होने के कारण स्वामी जी को कुछ नहीं हुआ। हालंकि स्वामी जी ने 59 वर्ष की आयु में 30 अक्टूबर 1883 को दिवाली की शाम को अपने अंतिम शब्द “प्रभु! तूने अच्छी लीला की, आपकी इच्छा पूर्ण हो..” के साथ अपना शरीर त्याग दिया। बताया जाता है की जोधपुर में स्वामी जी को दूध में पीसा हुआ कांच मिलाकर दिया गया था, जो उनकी मौत का कारण बना।



स्वामी जी का नारा क्या था?

स्वामी जी हिंदी भाषा के समर्थक थे तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही भाषा (हिंदी) चाहते थे। उनके पास हिंदू धर्म का जितना भी ज्ञान था वह उसे संपूर्ण भारत देश में फैलाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने भारत भ्रमण भी किया और ‘वेदों की ओर लौटों’ का नारा दिया।


स्वामी जी के सामाजिक योगदान

स्वामी जी 19वीं सदी के महान समाज सुधारकों में से एक है जिन्होंने उस समय फैली बुराइयों और अन्धविश्वासों को दूर करने का काफी प्रयास किया। साथ ही उन्होंने बाल विवाह और सती प्रथा, जैसी कुरीतियों का भी विरोध किया, हिंदू समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ डटकर खड़े रहे। इसी कारण उन्हें सन्यासी योद्धा भी कहा जाता है।

स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना कर इन कुरीतियों को दूर करने की कोशिश की तथा हिंदू ही नहीं अपितु इस्लाम, ईसाई और दूसरे धर्मों में फैली कुरीतियों का भी खंडन किया।


Disclaimer: उपरोक्त लेख सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है, HaxiTrick.com इसकी पुष्टि नहीं करता।

 

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